15 दिन से मुर्दाघर में पड़ा एक शव और दफनाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कानूनी लड़ाई, जानिए पूरा मामला

नई दिल्ली : 15 दिन से मुर्दाघर में रखा एक शव दफनाए जाने का इंतजार कर रहा। वजह है दफनाए जाने को लेकर विवाद। विवाद इस पर कि कहां दफनाया जाए। मृतक के बेटे की इच्छा है कि उनके पिता को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने की इजाजत दी जाए। मामला छत्तीसगढ़ का

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नई दिल्ली : 15 दिन से मुर्दाघर में रखा एक शव दफनाए जाने का इंतजार कर रहा। वजह है दफनाए जाने को लेकर विवाद। विवाद इस पर कि कहां दफनाया जाए। मृतक के बेटे की इच्छा है कि उनके पिता को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने की इजाजत दी जाए। मामला छत्तीसगढ़ का है। मृतक धर्मांतरित ईसाई थे। गांव के आदिवासी विरोध कर रहे हैं। कह रहे कि वे आदिवासियों के कब्रिस्तान में ईसाई शख्स को नहीं दफनाने देंगे। मामला अदालत पहुंच गया। शव मुर्दाघर में पड़ा हुआ है। हाई कोर्ट ने आदिवासियों के कब्रिस्तान में ईसाई शख्स को दफनाने की इजाजत नहीं दी। मृतक के बेटे उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। शीर्ष अदालत में छत्तीसगढ़ सरकार ने दलील दी है कि आदिवासी हिंदुओं के कब्रिस्तान में ईसाई शख्स को दफनाए जाने से परेशानी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अब अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। आइए जानते हैं आखिर पूरा मामला है क्या।
धर्मांतरित ईसाई शख्स की 7 जनवरी को हुई थी मौत
मृतक एक धर्मांतरित ईसाई थे जो पादरी के तौर पर काम करते थे। 7 जनवरी को उनकी मौत हो गई। मृतक के बेटे रमेश बघेल अपने पिता को पैतृक गांव छिंदवाड़ा में उस कब्रिस्तान में दफनाना चाहते हैं जहां उनके पूर्वज दफनाए गए हैं। छिंदवाड़ा बस्तर जिले का एक गांव है। गांव वाले ईसाई शख्स को हिंदू आदिवासियों के लिए बने कब्रिस्तान में दफनाने का विरोध कर रहे हैं। इसके बाद बघेल ने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का रुख किया। हाई कोर्ट ने भी इजाजत नहीं दी। 7 जनवरी से ही शख्स का शव मुर्दाघर में पड़ा हुआ है। मृतक के बेटे ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है जिस पर कोर्ट ने बुधवार को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।

पैतृक गांव के कब्रिस्तान में पिता को दफनाना चाहते हैं याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ता की दलील है कि छिंदवाड़ा गांव के कब्रिस्तान में ईसाई लोगों के लिए एक हिस्सा है, जहां पहले उनके परिवार के अन्य लोगों को दफनाया जा चुका है। दूसरी तरफ, राज्य सरकार की दलील है कि गांव का कब्रिस्तान हिंदू आदिवासियों के लिए है। राज्य सरकार की दलील है कि मृतक को 20-25 किलोमीटर दूर करकपाल नाम के गांव स्थित कब्रिस्तान में दफनाया जाए जो ईसाइयों का कब्रिस्तान है। इसके लिए प्रशासन की तरफ से एंबुलेंस भी मुहैया करा दी जाएगी।

पूरा मामला धार्मिक भावनाओं, दफनाने के अधिकार और सामाजिक सद्भाव के बीच टकराव का है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सुनवाई के दौरान कहा कि मृतक के सम्मानजनक अंतिम संस्कार के अधिकार को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए और मामला आपसी सहमति से सुलझाया जाना चाहिए।

याचिकाकर्ता का तर्क है कि छिंदवाड़ा गांव में एक कब्रिस्तान है जो पारंपरिक रूप से ग्राम पंचायत द्वारा आवंटित किया गया है। इस कब्रिस्तान में आदिवासियों और अन्य जातियों (महरा) के लिए अलग-अलग जगह है। महरा जाति के कब्रिस्तान में हिंदू और ईसाई समुदाय के लोगों के लिए अलग-अलग जगह चिह्नित है। याचिकाकर्ता की चाची और दादा को भी इसी ईसाई क्षेत्र में दफनाया गया है।

बेटे ने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी है चुनौती
इससे पहले, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने कहा कि छिंदवाड़ा गांव में ईसाइयों के लिए कोई अलग कब्रिस्तान नहीं है। उनके लिए लगभग 20-25 किमी दूर करकपाल गांव में एक अलग कब्रिस्तान उपलब्ध है। हाई कोर्ट ने माना कि पास के इलाके में ईसाई समुदाय का कब्रिस्तान उपलब्ध होने पर याचिकाकर्ता को राहत देना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे जनता में अशांति और वैमनस्य फैल सकता है।

दूसरे गांव के ईसाई कब्रिस्तान में दफनाए जाने के पक्ष में राज्य सरकार
सुप्रीम कोर्ट में 22 जनवरी को हुई सुनवाई के दौरान, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने छत्तीसगढ़ राज्य की ओर से पेश होकर कहा कि दफनाने का काम मौजूदा गांव से 20-30 किलोमीटर दूर ईसाई आदिवासियों के लिए निर्धारित क्षेत्र में होना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि यह राज्य के लिए कानून व्यवस्था का मामला है और इसे संवेदनशीलता से निपटाया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने सवाल किया कि जब सालों से किसी ने ईसाई और हिंदू आदिवासियों को एक साथ दफनाने पर आपत्ति नहीं जताई, तो अचानक हिंदू आदिवासियों की ओर से आपत्तियां कैसे आ रही हैं। जस्टिस नागरत्ना ने टिप्पणी की कि 'तथाकथित' ग्रामीणों द्वारा आपत्तियां एक 'नई घटना' है।

ये 'स्पष्ट भेदभाव': याचिकाकर्ता के वकील
याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्वेस ने राजस्व मानचित्रों का हवाला देते हुए तर्क दिया कि ऐसे कई मामले हैं जहां ईसाई आदिवासियों को गांव में ही दफनाया गया है। उन्होंने कहा कि इस मामले को अलग तरह से इसलिए देखा जा रहा है क्योंकि व्यक्ति धर्मांतरित था। उन्होंने राज्य द्वारा दायर जवाबी हलफनामे का हवाला देते हुए बताया कि राज्य ने इस तर्क को स्वीकार किया है कि एक धर्मांतरित व्यक्ति को गांव में दफनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। गोंसाल्वेस ने तर्क दिया कि यह 'स्पष्ट भेदभाव' है जिसके परिणामस्वरूप मृत व्यक्ति का 'सांप्रदायीकरण' हुआ है।

जब जस्टिस नागरत्ना ने सुझाव दिया कि याचिकाकर्ता की अपनी निजी भूमि में अपने पिता को दफनाने की वैकल्पिक प्रार्थना पर विचार किया जा सकता है, तो मेहता ने इसका विरोध किया और कहा कि दफनाना केवल निर्धारित स्थानों पर ही हो सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि व्यक्ति को उचित ईसाई रीति-रिवाजों के साथ करकपाल गांव (मूल गांव से अलग) में दफनाया जाए और राज्य एम्बुलेंस और पुलिस सुरक्षा प्रदान करेगा।

कल को कोई हिंदू मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाने की मांग करे तो...राज्य की दलील
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में दलील दी, 'मान लीजिए कि कल को कोई हिंदू ये तर्क देने लगे कि वह अपने परिवार के मृतक को मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाना चाहता है क्योंकि उसके पूर्व मुस्लिम थे और धर्मपरिवर्तन करके हिंदू बने थे तो स्थिति क्या होगी? राज्य के दृष्टिकोण से ये पब्लिक ऑर्डर से जुड़ा मुद्दा है। आर्टिकल 25 के संदर्भ में पब्लिक ऑर्डर एक अपवाद है।'

हालांकि, गोंसाल्वेस ने मेहता की दलील के विरोध में जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता अपने पिता को वहीं दफनाएगा जहां उनके पूर्वजों को दफनाया गया है। उन्होंने कहा कि अगर कुछ और करने की अनुमति दी जाती है, तो ऐसे मामलों की शुरुआत होगी जहां दलित व्यक्तियों को, अगर वे धर्मांतरित हो जाते हैं, तो उन्हें अपने गांव में शव दफनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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